‘भविष्य में शादी नहीं करेंगे लोग, शायद इसकी शुरुआत हो चुकी है’, विकास दिव्यकीर्ति का वीडियो वायरल

पूर्व सिविल सेवा अधिकारी और शिक्षाविद् विकास दिव्यकीर्ति का मानना है कि विवाह संस्था का धीरे-धीरे क्षय होना शुरू हो चुका है. उन्होंने कहा कि भले ही यह प्रक्रिया हजार वर्षों तक चले, लेकिन समाज में विवाह की आवश्यकता अब पहले जैसी नहीं रही, और आने वाले समय में यह परंपरा अल्पसंख्यक वर्ग तक सिमट सकती है.
विवाह को अब तक समाज की सबसे मजबूत और स्थायी संस्था माना जाता रहा है, लेकिन आधुनिक दौर में इस विचारधारा को नई चुनौतियों का सामना करना पड़ रहा है. युवाओं की सोच बदल रही है, कई लोग अब दीर्घकालिक संबंधों से दूर भाग रहे हैं, तो कुछ शादी के पारंपरिक ढांचे को नकारते हुए वैकल्पिक जीवनशैली को अपनाने लगे हैं. ऐसे में सवाल उठता है कि क्या विवाह की प्रासंगिकता खत्म हो रही है?
डॉ. विकास दिव्यकीर्ति, जो एक पूर्व IAS अधिकारी और दृष्टि IAS कोचिंग संस्थान के संस्थापक हैं, का मानना है कि विवाह जैसी सामाजिक संस्थाएं धीरे-धीरे खत्म होने की ओर बढ़ रही हैं. उनके अनुसार, ये संस्थाएं 500 से 1000 वर्षों में बनती हैं और विलुप्त होने में भी उतना ही समय लेती हैं. लेकिन विवाह के पतन की प्रक्रिया अब शुरू हो चुकी है, जो धीरे-धीरे समाज के विभिन्न वर्गों को प्रभावित करेगी.
महानगरों में बदलती सोच
दिव्यकीर्ति के अनुसार, अगले 100 से 200 वर्षों में भारत के बड़े शहरों में विवाह और अविवाह दोनों को समान रूप से स्वीकारा जाएगा. उन्होंने कहा कि भविष्य में ऐसा समय आएगा जब जितने लोग शादी करेंगे, उतने ही लोग इससे दूर भी रहेंगे. अगले 500 वर्षों में विवाह करने वाले लोग अल्पसंख्यक माने जाएंगे, और एक हजार वर्षों में शादी की खबर भी चौंकाने वाली होगी.
दिव्यकीर्ति ने यह भी बताया कि समाजशास्त्र के अनुसार कोई भी सामाजिक प्रणाली तब विकसित होती है जब उसकी आवश्यकता होती है. विवाह की परंपरा भी उसी जरूरत से जन्मी थी, संतान उत्पत्ति, सामाजिक स्थायित्व और उत्तराधिकार सुनिश्चित करने के लिए. अब जब उन जरूरतों को नए विकल्प मिल चुके हैं, तो विवाह का महत्व भी घटता जा रहा है.
पारंपरिक संरचनाओं की पुनर्समीक्षा जरूरी
यह विचार केवल विवाह तक ही सीमित नहीं है, बल्कि पारंपरिक सामाजिक ढांचों की समग्रता पर भी सवाल खड़े करता है. जैसे-जैसे तकनीक, स्वतंत्रता और आत्मनिर्भरता समाज में बढ़ती जा रही है, वैसे-वैसे लोगों की प्राथमिकताएं भी बदल रही हैं. विवाह अब केवल सामाजिक अनिवार्यता नहीं, बल्कि व्यक्तिगत विकल्प बनता जा रहा है, जिसे कुछ लोग अपनाते हैं और कुछ नहीं.